तुम भीगी रेत पर इस तरह चलती हो अपनी पिंडलियों से ऊपर साड़ी उठाकर जैसे पानी में चल रही हो! क्या तुम जान बूझ कर ऐसा कर रही हो क्या तुम श्रृंगार को फिर से बसाना चाहती हो?
हिंदी समय में आलोकधन्वा की रचनाएँ